भारत की भूगर्भिक संरचना, (Geological structure of India)

BUDDHADEEP ARYAN
11 min readNov 26, 2021

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परिचय (Introduction) -

किसी देश की भूगर्भिक संरचना हमें कई बातों की समझ में सहायता करती है, जैसे- चट्टानों के प्रकार, उनके चरित्र तथा ढलान, मृदा की भौतिक एवं रासायनिक विशेषताएं, खनिजों की उपलब्धता तथा पृष्ठीय एवं भूमिगत जल संसाधनों की जानकारी, इत्यादि।

भारत का भूगर्भिय इतिहास बहुत जटिल है। भूपटल की उत्पत्ति के साथ ही इसमें भारत की चट्टानों की उत्पत्ति आरंभ होती है। इसकी बहुत सी चट्टानों की रचना अध्यारोपण (superimposition) के फलस्वरूप हुई। भूगर्भिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप गोंडवानालैंड अर्थात् दक्षिणी महाद्वीप का भाग था। अल्पाइन-पर्वतोत्पत्ति (orogeny) के उपरांत तृतीयक काल (tertiary period) में हिमालय पर्वत का उत्थान आरंभ हुआ और प्लिस्टोसीन (pleistocene) युग में उत्तरी भारत के मैदान की उत्पत्ति आरंभ हुई। भारत की भूगर्भिक रचना का संक्षिप्त वर्णन आगे प्रस्तुत किया गया है।

भारत की भूगर्भिक संरचना, (Geological structure of India)

1.आर्कियन शैल-समूह (Archaean or Pre- Cambrian Formations)-

आर्कियन महाकल्प (Archaean Era) को प्री-कैम्ब्रियन (Pre-cambrian) युग भी कहा जाता है। प्री-कैम्ब्रियन युग पृथ्वी के इतिहास का सबसे पुराना युग है। यह मानव जीवन से भी अधिक पुरानी है। पृथ्वी की उत्पत्ति लगभग 4.6 अरब वर्ष पूर्व मनी जाती है। पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर लगभग 57 करोड़ वर्ष पूर्व तक अर्थात कैम्ब्रियन युग (Cambrian Period) तक के समय को पैलोजोइक युग (Palaeozoic Era) कहा जाता है।

पृथ्वी के इतिहास का 86.7% समय प्री-कैम्ब्रियन युग माना जाता है। आर्कियन शब्दावली का उपयोग सबसे पहले 1782 में जे.डी. डाना ने किया था। जब पृथ्वी सबसे पहले ठंड हुई तब इन चट्टानों का निर्माण हुआ। वायुमंडल की उत्पत्ति कीमोसिंथेसिस एवं फोटोसिंथेसिस जिन पर जीवन आधारित हैं इसी युग में उत्पन्न हुए। आर्कियन युग की चट्टानों में जीवाश्म (fossils) नहीं पाए जाते अर्थात उस युग में जीवन नहीं था। आर्कियन चट्टानों में रवों (crystals) की भरमार होती है तथा उनमें भारी भ्रंश (faults) एवं विकृति मरोड़ पाए जाते हैं। इन चट्टानों में प्लूटोनी (plutonic) अंतर्वेध (intrusion) पाया जाता है। इस प्रकार की चट्टानों के आधार को संश्लिष्ट अथवा मौलिक नाइस कहते हैं। इस प्रकार विश्व के सभी वलनदार पर्वतों (folded mountains) एवं पठारों (plateaus) की तलहटी में आर्कियन चट्टानें पायी जाती हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप को चट्टानों के भूगर्भीय इतिहास के लिए टी.एस.हॉलैंड ने एक विशेष भूगर्भिक समय मापक (geological time scale) तैयार किया था। इस मापक के अनुसार भारतीय चट्टानों को चार युगों यथा — आर्यन, पौराणिक, द्रविड़ियन, तथा आर्यन में विभाजित किया था। इस भूगर्भीय समय मापक के अनुसार अरावली, धारवाड़, कुडप्पा, विंध्यन, मेघालय पठार तथा मिकिर की पहाड़ियां आर्कियन युग की बनी हुई हैं। इन चट्टानों में विशेष रुप से ग्रेनाइट (granite) से लेकर गैब्रो (gabbro) तक की चट्टाने पाई जाती हैं। इनमें पाए जाने वाले खनिजों में अर्थोकलेज, बायोटाइट ,ओलिगोकलेज, मस्कोवाइट, क्वार्ट्ज, और हॉर्नब्लेंड सम्मिलित हैं।

भारतीय प्रायद्वीप के लगभग दो तिहाई भाग पर आर्कियन शैल फैली हुई है। हिमालय पर्वतमाला, काराकोरम, लद्दाख, जांस्कर तथा अरुणाचल के पर्वतों के नीचे भी आर्कियन चट्टानें फैली हुई हैं।

भारतीय प्रायद्वीप में फैली हुई आर्कियन चट्टानों को निम्न वर्गों में विभाजित किया जाता है-

* बुंदेलखंड नाइस(Bundelkhand Gneiss)- यह उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना तथा तमिलनाडु में विस्तृत है।

* बंगाल नाइस(Bengal Gneiss)- यह झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश तथा तमिनाडु में विस्तृत हैं। में इसका विस्तार है।

* नीलगिरी नाइस(Nilgiri Gneiss) — इसका रंग नीले-भूरे से लेकर गहरे-काले रंग में होता है। कर्नाटक, केरल, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान (अरावली पर्वतमाला) में इसका विस्तार है।

आर्थिक महत्व -

  • इन चट्टानों में सोना, चांदी, सीसा, जस्ता, अभ्रक, डोलोमाइट, तांबा, लोहा, तथा मैंगनीज जैसे धात्विक और अधात्विक खनिजों की प्रचुरता पायी जाती है।

2. धारवाड़ तंत्र अथवा प्रोटेरोजोइक संगठन (Dharwar-System or Proterozoic Formations)-

इस भूगर्भिक समय काल का विस्तार 2500 मिलियन वर्ष पूर्व से लेकर 1800 मिलियन वर्ष पूर्व तक है। यह भारत की प्रथम रूपांतरित (परतदार) चट्टानें हैं। भारत में इनका प्रथम अध्ययन प्रो. डी. एन. वाडिस ने कर्नाटक के धारवाड़ जिले में किया था। इनका निर्माण अधिकतर आग्नेय निक्षेपों, शिष्ट और नाइस से हुआ है। धारवाड़ चट्टानों का विस्तार तीन क्षेत्रों में हुआ है -

(i) दिल्ली के अरावली, दिल्ली श्रेणी (रीयोली श्रेणी) से लेकर अलवर के दक्षिण प्रदेश तक।

(ii) छोटा नागपुर पठार के मध्य और पूर्वी क्षेत्रों, मेघालय पठार तथा मिकिर पहाड़ियां।

(iii) कर्नाटक के धारवाड़ और बेल्लारी जिलों में जहां से इनका विस्तार तमिलनाडु के नीलगिरी तथा मदुरै जिले तक हुआ है।

धारवाड़ तंत्र की कुछ महत्वपूर्ण श्रेणियां निम्न प्रकार की हैं -

  • चैंपियन श्रेणी- यह श्रेणी मैसूर नगर के उत्तर-पूर्व तथा बैंगलोर के पूर्व में स्थित है, जिसका विस्तार कर्नाटक के रायचूर और कोलार जिलों तक है। इसकी सोने की खानें विश्व की सबसे गहरी खानों में से एक हैै, जो 3.5 किलोमीटर तक गहरी हैं।
  • चिल्पी श्रेणी- मध्यप्रदेश के बालाघाट और छिंदवाड़ा जिलों के कुछ हिस्सों में विस्तृत धारवाड़ तंत्र की इस श्रेणी में ग्रीट, फायलाईट, क्वार्ट्ज, हरे पत्थरों और मैग्नीफेरस चट्टानों की उपस्थिति है।
  • चांपानेर श्रेणी- बड़ोदरा गुजरात आसपास अरावली तंत्र के बारे क्षेत्रों में विद्यमान है। इसमें क्वार्ट्ज, कांगलोमरेट, फायलाईट, चुना-पत्थर, स्लेट तथा संगमरमर की बहुलता है।
  • क्लोजपेट श्रेणी- यह श्रेणी मध्य प्रदेश के बालाघाट और छिंदवाड़ा जिलों में विस्तृत है जिसमें क्वार्ट्ज, तांबे के पायराइट और मैग्नीफेरस चट्टानों की उपस्थिति है। मलांजखण्ड तांबा संयंत्र को इसी श्रेणी से तांबे के अयस्क को आपूर्ती होती है।
  • सकोली श्रेणी- धारवाड़ तंत्र की इस श्रेणी का विस्तार मध्य प्रदेश के जबलपुर और रीवा जिलों में है। इनमें अभ्रक, डोलोमाइट, संगमरमर, तथा शिष्ट की प्रचुरता है। इस श्रेणी का संगमरमर उच्च कोटि का है।
  • रीयोलो श्रेणी- इस श्रेणी का विस्तार ‘मजनूं का टीला’ (दिल्ली) से लेकर ‘अलवर’ (राजस्थान) तक उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में है। इसे दिल्ली श्रेणी के नाम से भी जाना जाता है। भगवानपुर तथा मकराना के उच्च कोटि के संगमरमर इसी श्रेणी में पाए जाते हैं।
  • लौह-अयस्क श्रेणी- इस श्रेणी की लम्बाई लगभग 65 किमी तथा विस्तार सिंहभूमि, मयूरभंज, और क्योंझर (केन्दु झाड) में एक श्रंखला के रूप में है। इस श्रेणी में लगभग 3000 मिलियन टन लौह-अयस्क भंडार होने का अनुमान है।
  • खोण्डोलाइट श्रेणी- यह श्रेणी पूर्वी घाट के उत्तरी सीमांत क्षेत्र से कृष्णा घाटी तक विस्तृत है। नाइस, चेकोनाइट खोण्डोलाइट और कोडुराइट इस श्रेणी की प्रमुख चट्टानें हैं। यहाँ के लौह-अयस्क जमशेदपुर, दुर्गापुर, बोकारो, एवं राउरकेला को आपूर्ति की जाती है।
  • सौसर श्रेणी- इस श्रेणी का विस्तार मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिला तथा महाराष्ट्र के नागपुर और भंडारा जिलों में है। इस श्रेणी में क्वार्ट्ज़, अभ्रक, संगमरमर, मैग्नीफेरस तथा शिष्ट चट्टानों की प्रचुरता है।

3. कुड़प्पा तंत्र अथवा पुराणा समूह (The Cuddappah System or The Purana Group )-

कुड़प्पा तंत्र शेल, स्लेट, क्वार्ट्ज़, तथा चुना पत्थर जैसे चट्टानों से निर्मित हैं। कुड़प्पा तंत्र की चट्टानों में जीवाश्म (Fossils ) नहीं पाए जाते हैं। इन चट्टानों का नामकरण आंध्र प्रदेश के कुड़प्पा जिले के नाम पर किया गया हैै, जहां अर्द्ध-चंद्राकार रूप में इनका विस्तार है। अनेक स्थानों पर कुड़प्पा चट्टानों की मोटाई 600 मी तक पायी जाती है। इसका मुख्य कारण भू-सन्नतियों (Geosynclines) में अवसादों का निरंतर बढ़ने से हुआ है। इन चट्टानों का विस्तार निम्न क्षेत्रों में है-

* लघु हिमालय

* छत्तीसगढ़

* राजस्थान में अलवर से दिल्ली

* आंध्र प्रदेश के कुड़प्पा एवं कुर्नूल जिलों में

कुड़प्पा तंत्र की प्रमुख श्रेणी है:-

पापाघानी श्रेणी (Papaghani Series)- इस श्रेणी का नामकरण आंध्र प्रदेश की पापाघानी नदी से हुआ है। इसकी प्रमुख चट्टानों में चुना-पत्थर, स्लेट, बलुआ पत्थर, शेल, क्वार्ट्ज़, और संगमरमर पायी जाती है। इस श्रेणी में मैग्मा का ‘डाईक’, और ‘सिल’, रूपों में अंतर्भेदन (intrusion) हुआ है, जिसने चुना-पत्थर को संगमरमर, स्लेट, टॉल्क, और सर्पगतिक में रूपांतरित किया है।

आर्थिक महत्व-

  • कुड़प्पा चट्टानों में मुख्यतः तांबा, निकिल, कोबाल्ट, संगमरमर, जास्पर, बलुआ-पत्थर, शेल, स्लेट, क्वार्ट्ज़, मैंगनीज, एबेस्टस, घटिया प्रकार के लौह-अयस्क, भवन निर्माण पत्थर तथा सजावटी पत्थर विशेष रूप से मिलते हैं।
  • कुड़प्पा तंत्र की चट्टानों में धातुएं कम पायी जाती हैं।

4. विंध्यन तंत्र : (The Vindhyan System)-

इसका नामकरण विंध्य पर्वत से हुआ है। यह पर्वत गंगा के मैदान और दक्कन के पठार के बीच एक विभाजक रेखा बनाती है। विंध्यन तंत्र प्रणाली बिहार के सासाराम से लेकर राजस्थान के चित्तौड़गढ़ तक लगभग 1,03,600 वर्ग किमी में विस्तृत है। इसमें अवसादी निक्षेपों की बहुलता होने के कारण कई स्थानों पर इसकी मोटाई 4000 मी तक पायी जाती है। ग्रेट बाऊंडरी फाल्ट (Great Boundary Fault) विंध्य पर्वत को अरावली पर्वत से लगभग 800 किमी तक अलग करता है।

विंध्यन तंत्र की प्रमुख श्रेणियाँ निम्न प्रकार की हैं-

* भंडेर श्रेणी (Bhander Series):- इस श्रेणी का विस्तार विंध्यन पर्वत के पश्चिमी भागों में हैं। अच्छे किस्म की भवन निर्माण चट्टानें, हीरे, और बहुमूल्य रत्न इस श्रेणी में पाए जाते हैं। बालू-पत्थर, चुना-पत्थर, और शैल इस श्रेणी की प्रमुख चट्टानें हैं।

* कैमूर श्रेणी (Kaimur Series):- यह श्रेणी बघेलखंड (मध्य प्रदेश) और बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश) की मध्य फैली है। कांग्लोमरेट, बालू-पत्थर और शैल इस श्रेणी की प्रमुख चट्टानें हैं। इनमे लाल बलुआ-पत्थर की भी प्रचुरता है, जिनका भारत के कई ऐतिहासिक इमारतों के निर्माण में इस्तेमाल हुआ है।

* बिजवार श्रेणी (Bijwar Series):- इस श्रेणी का विस्तार मध्य प्रदेश के छतरपुर और पन्ना जिलों में है। इनका निर्माण लाल बालू-पत्थर, क्वार्ट्ज़, और बालू-पत्थर से हुआ है। इस श्रेणी में जगह-जगह पर बेसाल्ट का अंतर्भेदन हुआ है, जिनमें हीरे पाए जाते हैं।

आर्थिक महत्त्व-

  • विंध्यन तंत्र लाल बालू-पत्थर,चुना-पत्थर, भवन निर्माण संबंधी चट्टानों, सजावटी पत्थरों, हीरायुक्त लौह-अयस्क तथा सीमेंट, ग्लास और रसायन उद्योगों के कच्चे माल की उपलब्धता के लिए प्रसिद्ध है।
  • पन्ना और गोलकुंडा की प्रसिद्ध हीरा की खानें भी विंध्यन तंत्र में ही स्थित हैं।
  • आगरा का किला, जामा-मस्जिद, कुतुबमीनार, हुमायूँ का मकबरा, फतेहपुर सीकरी, दिल्ली का बिड़ला मंदिर, साँची का बौद्ध स्तूप इत्यादि अनेक ऐतिहासिक और प्रसिद्ध इमारतों का निर्माण विंध्यन तंत्र के लाल बलुआ-पत्थरों से ही हुआ है।

5. पुराजीवी समूह (कैंब्रियन से कर्बोनीफेरस काल तक) (Cambrian to Carboniferous Period)-

पुराजीवी महाकल्प के अंतर्गत कई कल्प आते हैं, यथा — ऑर्डोविसियन, सिलुरियन, डिवोनियन, कर्बोनीफेरस, और पर्मियन। भारतीय भूगर्भिक समय मापक्रम में इसे द्रविड़ महाकल्प (Dravidian Era) के नाम से जाना जाता है।

पुरा जीवी महाकल्प (Palaeozoic Era) की अवधि 570 मिलियन वर्ष से 24.5 मिलियन वर्ष पूर्व तक मानी गयी है। इस महाकल्प में ही पृथ्वी पर जीवन के प्रथम संकेत मिलते हैं। इस क्रम की चट्टानों का विस्तार जम्मू — कश्मीर के पीर-पंजाल, हंदवारा, लिदर घाटी (अनंत नाग),हिमाचल प्रदेश के स्पीति, कांगड़ा, शिमला तथा उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमायूं क्षेत्रों में मिलता है। इसी महाकल्प में पैंजिया (Panjaea) का विभाजन हुआ तथा टेथिस सागर (Tethys Sea) अस्तित्व में आया। बलुआ- पत्थर, स्लेट, नमक, शैल, मृत्तिका (Clay), क्वार्ट्ज तथा खड़िया मिट्टी (मार्ल) इत्यादि प्रमुख कैंब्रियन चट्टानें हैं।

भारतीय भूगर्भिक समय मापक्रम में पुराजीवी तंत्र (Palaeozoic System in the Indian Geologic Time Scale)-

गोंडवाना क्रम का निर्माण प्रवर कर्बोनीफेरस काल एवं जुरासिक काल में नदी बेसिनों और झीलों में हुए निक्षेपण से हुआ है। बाद में इनका भ्रंशों के सहारे, गोंडवाना लैंड नामक महान दक्षिणी महाद्वीप के प्राचीन चट्टानों में धंसान आरंभ हुआ।

6. मेसोजोइक महाकल्प (गोंडवाना तंत्र) (The Gondwana System)-

मेसोजोइक का अर्थ है- ‘मध्य जीवन’। भूगर्भिक समय मापक्रम की वह अवधि, जिसमें चट्टानों में अकशेरुकी जीवाश्मों (Invertebrate Fossils)का वर्चस्व मिलता है उसे ही ‘मेसोजोइक’ शब्द से सूचित किया जाता है। मेसोजोइक महाकल्प के अंतर्गत तीन उपमहाकल्प आते हैं- (i) ट्राइऐसिक (Triassic), (ii) जुरैसिक (Jurassic), (iii) क्रिटेशस (Cretaceous)।

भारतीय भूगर्भिक समय मापक्रम के अनुसार यह अवधि प्रवर कार्बोनिफेरस (Upper Carboniferous) काल से लेकर कैनोजोइक (Cainozoic) या आर्यन काल के प्रारम्भ तक पाया जाता है।

गोंडवाना तंत्र की प्रमुख श्रेणियाँ निम्न प्रकार की हैं-

* पंचेत श्रेणी (Panchet Series)- यह प्रवर गोंडवाना (Upper Gondwana) प्रणाली की सबसे नवीन श्रेणी है। इस श्रेणी का नामकरण रानीगंज के दक्षिण में स्थित पंचेत पहाड़ी (Panchet Hills) से हुआ है। हरे रंग लिए हुए बलुआ-पत्थर और शैल इस श्रेणी की प्रमुख चट्टानें हैं। इस श्रेणी में कोयले की परतें नहीं पायी जाती हैं।

* तलचर श्रेणी (Talchar Series)- इस श्रेणी का नामकरण ओडिशा के धनकेनाल जिले के तलचर नमक स्थान से हुआ है। इनमें अच्छी गुणवत्ता वाले कोयले की प्रचुरता है, जिन्हें प्रगलन और ताप विद्युत् संयंत्रों में उपयोग में लाया जाता है।

* दामुदा श्रेणी (Damuda Series)- यह श्रेणी मध्य गोंडवाना युग की हैं, जिनमें कोयले निक्षेप की परतें प्रचुरता में पाई जाती हैं।इन परतोंं की मोटाई और फैलाव पश्चिम की अपेक्षा पूर्व में अधिक विस्तृत है। इस श्रेणी का कोयला क्षेत्र झारखंड के दामोदर बेसिन में रानीगंज, झरिया, बोकारो और कर्णपुरा; मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कोरबा, पेंच घाटी, सिंगरौली; ओडिशा के महानदी बेसिन के तलचर में पाए जाते हैं। झिंगुर्दा कोयला परत, जिसकी मोटाई 131 मी है, इसी श्रेणी में है। यह भारत की सबसे मोटी कोयला परत है। गोंडवाना क्रम की चट्टानें कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पूर्वांचल, सौराष्ट्र, कच्छ, प. राजस्थान, कोरोमण्डल तट तथा राजमहल की पहाड़ियों में भी पायी जाती हैं।

आर्थिक महत्व-

  • भारत का सर्वोत्तम कोयला और इसका सर्वाधिक भंडार गोंडवाना प्रणाली में ही पाया जाता है जहां से 95% कोयले की प्राप्ति होती है।
  • इसके अतिरिक्त इनमें लौह-अयस्क, चूना- पत्थर, बलुआ-पत्थर और चीनी मिट्टी उद्योग के कच्चे मालों की आपूर्ति भी होती है।

7. क्रिटेशस तंत्र या दक्कन ट्रैप (The Cretaceous System or The Deccan Trap)-

क्रिटेशस उप महाकल्प का विस्तार लगभग 146 मिलियन वर्ष पूर्व से लेकर 65 मिलियन वर्ष पूर्व तक माना जाता है। क्रिटेशस शब्दावली की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘क्रेटा’ (Creta) से हुई है, जिसका अर्थ है ‘खड़िया’ (चाक)। इस काल में सागरों का भूखंडों पर अतिक्रमण हुआ (कोरोमण्डल तट और नर्मदा घाटी) तथा उच्च लावा उद्गारों से दक्कन ट्रैप का निर्माण हुआ। दक्कन ट्रैप में पाताली चट्टानों ‘ग्रैबो’ और ‘ग्रेनाइट’ के रूप में स्पष्ट अंतर्भेदन दिखता है।

क्रिटेशस युग के अंत में प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भारी ज्वालामुखी (बेसाल्टिक लावा) का उद्गार हुआ जिसने सतह पर 3000 मी से भी अधिक मोटाई की परत बनाई। दक्कन ट्रैप इसी लावा का परिणाम है। इसका विस्तार लगभग 5 लाख वर्ग किमी में गुजरात के कच्छ और काठियावाड़, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश के मालवा पठार, उ.प. कर्नाटक, उत्तरी आंध्र प्रदेश, झारखंड तथा छत्तीसगढ़ तक है।

भारत के दक्कन ट्रैप की अधिकतम मोटाई (3000 मी) मुंबई तट के सहारे मिलती है, जहां से पूरब और दक्षिण दिशाओं में यह मोटाई घटती जाती है। महाराष्ट्र के भुसावल में बोरिंग के अंतर्गत इन लावा प्रवाहों की पहचान की गई है। ये लावा प्रवाह परतों के रूप में अंतर-संस्तरित हैं, जिन्हें ‘अंतर-ट्रेपियन संस्तर’ (Inter-Trappean Beds) कहा जाता है।

आर्थिक महत्व -

  • दक्कन ट्रैप के बेसाल्ट का उपयोग सड़क एवं भवन निर्माण में किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें क्वार्ट्ज, मैग्नेटाइट, अगेट, बॉक्साइट तथा अर्द्ध बहुमूल्य पत्थर पाए जाते हैं।

दक्कन ट्रैप पोटाश, मैग्नेशियम, फास्फेट तथा कार्बोनेट खनिजों में भी धनी है।

8. तृतीयक तंत्र या कैनोजोइक महाकल्प (Tertiary System or The Cenozoic Era)-

कैनोजोइक का अर्थ है- ‘नूतन जीवन’। तृतीय क काल का प्रारंभ लगभग 66 मिलियन वर्ष पूर्व से माना जाता है। इस तंत्र की चट्टानों में कई प्रकार के जीवाश्म मिले हैं, जो आधुनिक जीव रूप के काफी नजदीक हैं, जैसे- स्तनपायी जीवों, पौधों और अकशेरुकी जीव। कैनोजोइक महाकल्प के अंतर्गत दो उप महाकल्प हैं- तृतीयक काल और चतुर्थ काल।

तृतीय क काल में दो महत्वूर्ण घटनाएं घटित हुईं — (i) पुराना गोंडवाना महाद्वीप अंतिम बार टूटा और (ii) टेथिस (Tethys) भू-अभिनति का हिमालय के रूप में उत्थान। तृतीयक युग के प्रारंभ में भारत का तिब्बत से टकराव हुआ तथा सागर तल के मंद उत्थान के साथ टेथिस बेसिन में निक्षेपित अवसादों का भी उत्थान शुरू हुआ।

हिमालय के उत्थान के तीन स्पष्ट चरण माने जाते हैं -

(i) इयोसीन युग (Eocene Period)- इसका प्रारंभ 65 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ माना जाता है, जो ओलीगोसीन युग (Oligocene) में संपन्न हुआ और महान हिमालय का उत्थान हुआ।

(ii) मध्य मायोसीन (Middle Miocene)- इसका प्रारंभ लगभग 45 मिलियन वर्ष पूर्व में हुआ है, जिसमें लघु हिमालय में वलन पड़े।

(iii) उत्तर प्लियोसीन युग (Post-Pliocene)- इसका प्रारंभ 1.4 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ, जिसमें शिवालिक अथवा बाह्य हिमालय में वलन पड़े।

भारत के प्रायद्वीपीय भाग में तृतीयक तंत्र की घटना कच्छ, काठियावाड़, कोंकण, मालाबार, नीलगिरि और पूर्वी घाट के तटीय क्षेत्रों में घटी।

9. चतुर्थ महाकल्प की संरचनायें (The Quaternary Period- Pleistocene and Recent Formations)-

चतुर्थ महाकल्प के अवसादों तथा निक्षेपों में आधुनिक युग के बहुत से जीवों के जीवाश्म पाए जाते हैं, जिनमें दूध देने वाले जीवों के जीवाश्म भी मिलते हैं। उत्तरी भारत के मैदान की उत्पत्ति भी इसी युग में हुई थी जो एक महाखड्ड के समान थी, जिसमें हिमालय से उतरने वाली और विंध्यन पर्वत से आने वाली नदियों ने अवसाद एवं निक्षेप एकत्रित करके इसको एक समतल मैदान में बदल दिया। सिंध-गंगा तथा ब्रह्मपुत्र नदी के मैदानों का निर्माण भी इसी युग में हुआ था।

प्लिस्टोसीन युग (Pleistocene Period) में हिम युग आने के कारण हिम चादरों तथा पर्वतीय हिमनदों का विस्तार हुआ। जम्मू की भदरवा घाटी और कश्मीर घाटी के करेवा निक्षेप तथा साथ ही नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के चबूतरे (River Terraces) भी इसी युग के माने जाते हैं।

कश्मीर घाटी में झेलम के दोनों ओर, पीरपंजाल की निचली ढलानों पर करेवा पाए जाते हैं। किसी-किसी स्थान पर करेवा की गहराई 1400 मीटर तक पाए जाते हैं।

10. करेवा (Karewas) -

प्लिस्टोसीन युग की झीलों एकत्रित होनेेेेेेेे वालेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे निक्षेपों एवंं अवसादों को करेवा कहते हैं। इसकेे निक्षेपों में रेेत, बालूू, दोमट, कंंकड़़, सिल्ट तथा बोल्डर इत्यादि का मिश्रण होताा है। कश्मीर घाटी का प्रसिद्ध पांपूर करेवा केसर, बादाम तथा अख़रोट की खेती के लिए प्रसिद्ध है।

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